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Chhattisgarh

कंप्यूटर युग में लुप्त हो रहे गुलेल से निशाना लगाना

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“संतोष सोनकर की रिपोर्ट”

राजिम । कंप्यूटर युग ने बच्चों के हाथों से ना सिर्फ गुल्ली, डंडा, भंवरा, बाटी को छीना है बल्कि गुलेल वर्तमान में लुप्त होती जा रही है। यदा-कदा ही बच्चे गुलेल से निशाना लगाना सीखते हैं आज से 30 साल पहले यानी 80 – 90 के दशक में गांव से लेकर शहरों तक गुलेल का काफी प्रचलन था। इसी से ही निशाना लगाकर नजर को अचूक बनाते थे और छोटे बच्चे खेल खेल में तैयारी करते आर्मी जॉइन कर लेते थे। निशाना लगाने का यह सस्ता एवं बढ़िया साधन है। छोटे बच्चों समेत युवाओं की यह खासा पसंद होती है बच्चे खेल में ही गिट्टी,मुरम या फिर गोटा का टुकड़ा लेकर रबड़ तान देते और निशाना लगते ही दूर तलक बुल पर लग जाता था। इसे बनाने में कोई खर्च नहीं होते थे बल्कि आसपास के सामानों को मिलाकर इन्हें मूर्त रूप दिया जाता था दो डंडी वाले लकड़ी को सफाई के साथ काटा जाता तथा उसमें रबड़ को बांधकर शानदार गुलेल बनाते थे समय के साथ साथ यह दुकानों में बिकने लगी और कुछ कंपनियां इस पर दिलचस्पी दिखाने लगे। परंतु धीरे धीरे आधुनिक युग आने के बाद इनका चलन ना के बराबर हो गया है। सन 1989 में बॉलीवुड की हिंदी सिनेमा में सूर्या फिल्म रिलीज हुई जिसमें विनोद खन्ना ने हीरो का किरदार निभाते हुए गुलेल से कई निशाना लगाएं जिसे देखकर गुलेल का प्रचलन बढ़ गया था। अक्सर इनका प्रयोग फलो पर निशाना लगाने, उसे तोड़ने या फिर पंछियों पर किया जाता था। ज्ञातव्य हो कि प्राचीन काल से ही गुलेल का उपयोग किया जाता रहा है। समय के साथ साथ गुलेल पर कोई स्पर्धा नहीं हुई तथा इसको बढ़ावा नहीं दिया गया जिसके कारण लुप्त होते जा रहे हैं। दूरांचल में आज भी गुलेल का प्रचलन है लेकिन वहां भी टेलीविजन क्रिकेट इत्यादि के प्रचलित होने के बाद इनका उपयोग कम सा हो गया है। क्रिकेट सीखने के बाद बच्चों से लेकर बड़ों में कैच करने की कला बढ़ी है। गुल्ली खेलने से ना सिर्फ शारीरिक विकास होता है बल्कि मोटिवेशन के भी गुण आते हैं ठीक इसी तरह से गुलेल का अपना वर्चस्व है लेकिन वर्तमान समय में धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है इसे संजो कर रखने की जरूरत है। इस संबंध में 80 साल के बुजुर्ग समारू पटेल ने बताया कि हमारे समय में गुलेल का प्रचलन सबसे ज्यादा था हम अपने पिताजी से जिद करके गुलेल बनवा लेते थे और गर्मी के समय दोपहर में इमली व आम वृक्ष के समूह के पास जाकर गुलेल से निशाना लगाते थे। यह खेल बड़ा ही अच्छा लगता था। 65 साल के गौतरिया चेलक ने बताया कि छत्तीसगढ़ सरकार हमारे संस्कृति एवं लोक खेलों पर अत्यधिक काम कर रही है। गुलेल की प्रतियोगिता आयोजित कर निशाना लगाने की प्रथा को आगे बढ़ाया जा सकता है इससे मोटिवेशन के गुण विकसित होते हैं।

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