जन -चेतना के अभाव और वन – कर्मियों की लापरवाही से उजड़ रही पहाड़ियाँ

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रायपुर । शासन -प्रशासन की तमाम अच्छी पहल और अच्छी योजनाओं के बावज़ूद जन -चेतना के अभाव ,सामाजिक ज़िम्मेदारी की कमी और स्थानीय वन कर्मियों की लापरवाही से इन दिनों महासमुंद जिले के पिथौरा वन परिक्षेत्र की पहाड़ियां उजड़ती जा रही हैं।
ताजा उदाहरण इस अंचल की कौड़िया डोंगरी और टेका डोंगरी का है ,जिनकी हरियाली को पर्यावरण के दुश्मन नोच -खसोटकर ख़त्म करते जा रहे हैं। राजधानी रायपुर से करीब एक सौ किलोमीटर के फासले पर और मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 53 के किनारे हर दिन सैकड़ों वाहनों में आते -जाते हजारों लोगों को इन दोनों पहाड़ियों की बर्बादी का मंज़र साफ़ नज़र आता है।
इनमें से कई ऐसे लोग भी इस राह से अपनी गाड़ियों में आते -जाते हैं और जिन पर जंगलों और पहाड़ों के पर्यावरण को बचाने और विकसित करने की महत्वपूर्ण सामाजिक जिम्मेदारी भी है। लेकिन कोई भी इन पर ध्यान नहीं देता। पर्यावरण के लिए चिंतित कई नागरिक सवाल उठा रहे हैं कि इन पहाड़ियों की तबाही का जो दर्दनाक और चिन्ताजनक दृश्य सब अपनी आँखों से साफ -साफ देख रहे हैं ,वो जिम्मेदारों को क्यों नज़र नहीं आ रहा है ?यह एक अहम और विचारणीय सवाल है।
राष्ट्रीय न्यूज सर्विस (आरएनएस) के विशेष संवाददाता ने पिछले दिनों पिथौरा वन परिक्षेत्र की प्रसिद्ध कौड़िया डोंगरी के दिनों दिन उजड़ने का कारण जानने ग्राम कौड़िया का दौरा किया । ग्रामीणों से बातचीत में यह महसूस हुआ कि आम तौर पर गाँव के लोगों की समस्याएं ,शिकायतें और अपेक्षाएं बहुत छोटी -छोटी होती हैं ,लेकिन अगर समय पर उनका समाधान या निराकरण नहीं हुआ तो वे बहुत बड़ी हो जाती हैं और उसका नुकसान गाँव वालों के साथ -साथ सम्पूर्ण समाज को भी उठाना पड़ता है।
करीब पांच किलोमीटर में फैली कौड़िया की पहाड़ी श्रृंखला पर पर्यावरण की दृष्टि से गंभीर ख़तरा मंडरा रहा है। उल्लेखनीय है कि कौड़िया एक ऐतिहासिक गाँव है। इस गाँव के नाम से कभी गोंड आदिवासी राजाओं की जमींदारी हुआ करती थी। आज भी यहाँ मुख्य रूप से गोंड और बिंझवार आदिवासी निवास करते हैं। पहले कौड़िया को रियासत भी माना जाता था। आदिवासियों के लोक देवता करिया धुरवा की भी यह किसी जमाने में राजधानी होती थी। यहाँ उनका गढ़ (किला ) था।अब इसके नाम मात्र के अवशेष बाकी रह गए हैं। पुरातत्व की दृष्टि से यहां अनुसंधान की काफी गुंजाइश है।
राष्ट्रीय न्यूज सर्विस का विशेष संवाददाता पिथौरा से जंघोरा ,डिघेपुर ,बरेकेल खुर्द होते हुए करीब 10 किलोमीटर की दूरी तय करके कौड़िया पहुँचा । यह ग्राम पंचायत पिलवापाली का आश्रित गाँव है और पहाड़ी के बिल्कुल नीचे बसा हुआ है । कौड़िया बस्ती के सामने पहाड़ी में हरियाली तुलनात्मक रूप से अच्छी है ,लेकिन उस पार चिंताजनक ,! वनों को बचाने के लिए सरकार की संयुक्त वन प्रबंधन योजना पूरे देश में विगत लगभग पच्चीस साल पहले शुरू हुई थी। इस योजना के तहत महासमुंद जिले में भी ग्रामीणों की भागीदारी से वन प्रबंधन समितियों का गठन किया गया है ,जिन्हें जंगल बचाने की ज़िम्मेदारी दी गयी है। यह समिति ग्राम कौड़िया में भी है।
वन प्रबंधन समिति कौड़िया के अध्यक्ष बजरंग सिंह ठाकुर और गाँव के अन्य लोगों से मुलाकात हुई। बेहद सरल स्वभाव के सीधे सादे समिति अध्यक्ष से जब विशेष संवाददाता ने पूछा कि सरकार ने तो आपकी समिति को स्थानीय जंगलों की रक्षा का दायित्व सौंपा है ,फिर भी पहाड़ियां क्यों उजड़ रही हैं ?
इस पर उन्होंने कहा -यह सही बात है ,लेकिन दिक्कत यह है कि समिति ने जंगल की पहरेदारी के लिए जिन 4 ग्रामीणों को चौकीदार बनाया था ,उनका मासिक मानदेय वन विभाग की ओर से अब तक नहीं मिला है।यही कारण है कि अब समिति के सदस्य ग्रामीण जंगल बचाने के मामले में उदासीन हो गए हैं। राष्ट्रीय न्यूज सर्विस ने उनसे जानना चाहा कि चौकीदारों का बकाया मानदेय तो कुछ हजार रुपयों का होगा , उसके लिए उच्चाधिकारियों को आवेदन भेजा जा सकता है ,लेकिन इस छोटी -सी समस्या के कारण अपने ही गाँव के आस-पास के वनों को बचाने की अपनी ज़िम्मेदारी समिति कैसे छोड़ सकते हैं?डोंगरी के सीने से बहुमूल्य जंगल ख़त्म हो रहे हैं और सरकार को और आप सबको भी लाखों करोड़ों का नुकसान हो रहा है । इस पर उन्होंने दूसरा कारण बताया कि वन विभाग का बीट गार्ड समिति का सचिव होता है। इस इलाके में दो साल पहले जिस बीट गार्ड की पोस्टिंग हुई ,उसकी निष्क्रियता की वजह से समिति को सरकारी मार्गदर्शन भी नहीं मिल पा रहा है ।
बहरहाल ,जब मैंने समिति अध्यक्ष से पूछा कि इन पहाड़ियों के जंगल कम क्यों होते जा रहे हैं ,तो उनका जवाब था कि पहले इनमें कर्रा ,धौंरा ,सेन्हा पेड़ों के साथ -साथ साजा ,सरई और बीजा जैसे इमारती वृक्षों के भी घने जंगल थे।लेकिन विगत कुछ वर्षों से पिथौरा और आस -पास के गाँवों (बड़े सवैया ,लाखागढ़ आदि ) से अज्ञात लोग आकर धीरे -धीरे इनका सफाया करते रहे। कुछ ग्रामीण जलाऊ लकड़ी के लिए भी पेड़ों की कटाई करते रहते हैं। अब तो इमारती वृक्ष नहीं हैं ,लेकिन अन्य वृक्षों की कटाई हो रही है। यही कारण है कि पहाड़ियों से हरित आवरण ख़त्म हो रहा है।
विशेष संवाददाता ने देखा कि यह गंभीर समस्या पहाड़ियों के सामने के हिस्से में है ,जहाँ ऐसा लगता है कि हरे -भरे आवरण को छिल -छिलकर उनके सीने में बड़े -बड़े ज़ख्म कर दिए गए हैं । यह हृदयविदारक दृश्य पिथौरा से भी साफ नज़र आता है। हालांकि पहाड़ियों के पीछे के हिस्से में अभी भी काफी घना जंगल है। कौड़िया गाँव से लगे हुए हिस्से में भी काफी अच्छी हरियाली है , लेकिन इसके बावज़ूद आस -पास की पहाड़ियों के कुछ शिखरों पर हरित आवरण के छिलते और छीजते जाने के छोटे -बड़े निशान देखे जा सकते हैं।
कौड़िया के पास अपने खेत में धान कटाई में व्यस्त आसाराम बिंझवार से मुलाकात हुई। वह भी वन प्रबंध समिति के सदस्य रहे हैं। संक्षिप्त बातचीत में उन्होंने लगभग वृक्ष विहीन हो चुकी पहाड़ी की ओर संकेत करते हुए बताया कि पहले उस पर सलिहा ,मुनगर आदि प्रजातियों के पेड़ों के घने जंगल थे ,जो काफी हल्के होते हैं। उनमें से कुछ तो हवा -तूफान में गिरते चले गए और कुछ को मनुष्यों ने काट लिया।इससे पहाड़ी धसकने लगी । यानी भू-स्खलन भी हुआ। कई बड़े -बड़े ढेले खेतों में भी गिरे। आसाराम बिंझवार छत्तीसगढ़ी में बताते हैं –दस -पन्द्रा साल पहिली डोंगरी ह घन रिहिस हे ,अब चातर होवत जात हे। यानी पहले डोंगरी बहुत सघन थी ,अब चातर (सफाचट)होती जा रही है। आसाराम बताते हैं –पहिली हम मन जंगल ला जोगत रेहेंन , महुआ बिने बर माई लोगन आवय तो ओ मन ला समझावत रेहेंन के भलुआ भगाए बर रुख तरी आगी झन बारौ ।
। पहले हम लोग जंगल की पहरेदारी करते थे, गर्मियों में जंगल को आग से भी बचाते थे। महुआ बीनने वाली महिलाओं को समझाते थे कि भालुओं को भगाने के लिए पेड़ के नीचे आग मत लगाओ। जंगल काफी हद तक सुरक्षित हो गया था । मैंने पूछा — तो अब क्या हो गया ? वह बोले — रेंजर हमारी कुछ समस्याओं को अनसुना करने लगे ,तो हमने भी यह काम छोड़ दिया।
ग्रामीणों से उस दिन की बातचीत में लगा कि एक बड़ी समस्या उनके साथ वन कर्मचारियों की संवादहीनता की है। वो अगर अपने कार्यक्षेत्र के वनों का नियमित निरीक्षण करें , वन समिति की नियमित बैठक लेकर सदस्यों की दिक्कतों को दूर करने का प्रयास करें तो संयुक्त वन प्रबंधन योजना का उद्देश्य भी पूरा होगा और इन मरणासन्न पहाड़ियों को नया जीवन मिल जाएगा।

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