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चैत्रकृष्ण तेरस पर भोरमदेव मेला क्यों, वर्षो से हो रहा मेला, जाने भोरमदेव का पूरा इतिहास

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“दीपक ठाकुर की रिपोर्ट”


कवर्धा। भगवान शिव का आध्यात्मिक क्षेत्र भोरमदेव में प्रतिवर्ष चैत्र कृष्ण पक्ष त्रयोदशी(तेरस)को विशाल मेले का आयोजन शताब्दियों से किया जा रहा है। इसकी जानकारी व भोरमदेव का पूरा इतिहास पुरातत्व विशेषज्ञ व इतिहासकार आदित्य श्रीवास्तव ने बताया। यदि हम मेले के इतिहास (महोत्सव नहीं)पर जाएँ तो लगता है कि यह मेला राजा राजपाल सिंह के कार्यकाल में भोरमदेव मेले की शुरुआत हुई। अष्टराज अंभोज के अनुसार कवर्धा रियासत के पांचवे राजा राजपाल सिंह(रजपाल सिंह) कार्यकाल 1874-1891ने अपनी राजधानी राजानवागांव स्थानांतरित की थी।इनकी दानवीरता प्रसिद्ध थी इन्होने उन सब दान को कई बार किया जिनका उल्लेख पुराणों में है।
भोरमदेव शिलालेख का पहला अनुवाद राजा उजियार सिंह के कार्यकाल में 1802-49 के मध्य तथा दूसरा अनुवाद 1867 में रानी रूपकुंवर के कार्यकाल में हुआ था जो मेरे(आदित्य श्रीवास्तव)पास है।भोरमदेव उस समय अत्यंत बीहड़ जंगल था।।सन1925 के अष्टराज अम्भोज में स्व.धानूलाल श्रीवास्तव ने उल्लेख किया है कि भोरमदेव में प्रतिवर्ष दो मेले का आयोजन हो रहा है जिसमें एक चैत्रसुदी 10से पूर्णिमा तक है जिसमें प्रतिदिन लगभग 3000 लोग आते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि चैत्र कृष्ण पक्ष त्रयोदशी(तेरस)को मेला क्यों?
प्रतिमाह की त्रयोदशी तिथि को प्रदोष व्रत रखा जाता है। यह व्रत महादेव को समर्पित व्रत है तथा इस दिन भोलेनाथ के खास उपाय करके उन्हें प्रसन्न किया जा सकता है।प्रदोष व्रत के संबंध में मान्यता है कि जब चंद्र देव को कुष्ठ रोग हुआ था, तब उन्होंने भगवान शिव की आराधना की थी और शिव जी की कृपा से ही उनका दोष दूर हो गया था। इसीलिए प्रदोष व्रत रखने की मान्यता चली आ रही है।हम जानते हैं कि भोरमदेव का पूरा क्षेत्र चौरा ग्राम शिवलिंग से आवासित है। मुख्य मन्दिर के भीतर गर्भगृह में स्थित शिवलिंग ‘हाटकेश्वर’ शिवलिंग है जो सर्व मनोकमना पूर्ण करते हैं और बाजू में बूढ़ा महादेव सन्तान प्राप्ति के लिए प्रसिद्ध हैं।
हिंदू पंचांग के अंतर्गत प्रत्येक माह के तेरहवें दिन को संकृत भाषा में त्रियोदशी कहा जाता है। और प्रत्येक माह में कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष होते हैं अतः त्रयोदशी एक माह में दो वार आती है। परंतु कृष्ण पक्ष के तेरहवें दिन आने वाली त्रयोदशी भगवान शिव को अति प्रिय है। भगवान शिव के प्रिय होने के कारण इस तिथि को शिव के साथ जोड़ कर साधारण भाषा में शिवतेरश कहा जाने लगा। हिन्दू नववर्ष चैत्र प्रतिपदा से प्रारम्भ होता है और प्रत्येक हिन्दू चाहता है कि आगामी वर्ष में सब कुछ शुभ हो इसके लिए जगत नियंता शिव जी की पूजा चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को करे क्योंकि शिवजी को यह तिथि अतिप्रिय है तथा इस दिन पूजन करने से भोलेनाथ अत्यन्त प्रसन्न होते हैं।और प्रतिपदा से जगत जननी माँ शक्ति की आराधना कर शिव और शक्ति दोनों को प्रसन्न करे, इसीलिए चैत्र तेरस को यहाँ के मेले का विशेष महत्व है।पहले भोरमदेव मन्दिर के उत्तर द्वार पर स्थित भैरव देव में बलि दी जाती थी उसे 1974के आसपास प्रशासन,जैन समाज,हिन्दू समाज तथा भोरमदेव तीर्थकारिणी प्रबंध समिति के सहयोग से बंद कराया गया था।एक समय था कि मेला अवधि को छोड़कर अन्य अवधि में भोरमदेव मन्दिर क्षेत्र में रात्रि में रुकने की मनाही थी।अधिकांश लोग मेला पैदल ही जाया करते थे उस समय एक कहावत प्रचलित था “जाये के बेरा भोरमदेव अउ आये के बेरा ओरम गेव”अर्थात वापसी में व्यक्ति थक कर चूर हो जाता था।

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