पोती मारकर बच्चों की लंबी आयु की कामना की,अंचल में हलषष्ठी का पर्व धूमधाम के साथ मनाया गया
”संतोष सोनकर की रिपोर्ट”
राजिम । लोक पर्व हलषष्ठी अंचल में हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। स्त्री प्रधान इस व्रत को करने के लिए महिलाएं अत्यंत उत्साहित थी और नए कपड़े धारण कर सगरी के पास जाकर पूजा अर्चना किए कथा सुनने के बाद वापस घर आने के पश्चात अपने बच्चों की लंबी आयु के लिए उन्हें पोती से टच किया गया। 6 बार पीठ को मारने के पश्चात उन्हें आशीर्वाद माताओं ने दिया। शहर के साईं मंदिर, दानी तालाब, सत्ती मंदिर, थानापारा, परमानंद चौक, महामाया पारा, छोटे राजीव लोचन, राधा कृष्ण मंदिर के पास, पटेल पारा, राजीव लोचन मंदिर के पास, सुभाष चौक, गायत्री मंदिर, पोस्ट ऑफिस पारा, शंकर नगर, श्रीराम चौक, शिवाजी चौक, आमापारा, कृषि उपज मंडी के पास, तहसील ऑफिस के पास, सतनामी पारा सहित अनेक जगहों पर सगरी का निर्माण किए थे। इनके अलावा गांव में भी सगरी बनाकर पूजा अर्चना की और कथा का श्रवण पान भी किया। जिनमें चौबेबांधा,सिंधौरी, बरोंडा, श्यामनगर, सुरसाबांधा, कुरूसकेरा, तर्रा, कोपरा, धूमा, परतेवा, देवरी, लोहरसी, पथर्रा, नवाडीह, बकली, पीतईबंद, रावड़, परसदा जोशी, पोखरा, भैंसातरा, कौंदकेरा इत्यादि है। जानकारी के मुताबिक भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि की शुरुआत 16 अगस्त 2022 की रात्रि 8:17 से हो गई थी जो 17 अगस्त की रात्रि 8:24 तक रही। हिंदू धर्म में उदया तिथि से ही सभी व्रत त्योहार मनाए जाते हैं इसलिए हलषष्ठी का व्रत 17 अगस्त को रखा गया। छत्तीसगढ़ अंचल में हलषष्ठी व्रत का अपना विशेष महत्व होता है भाद्र मास कृष्ण पक्ष के षष्ठी को मनाया जाने वाला यह व्रत पर्व का रूप है तथा स्त्री प्रधान है इसे कमरछठ, हलषष्ठी, ललही छठ और ललिता व्रत के नाम से भी जाना जाता है पुत्र व सुहाग की मंगल कामना से अधिकांशतः सुहागन महिला ही इस कठिन व्रत का पालन करती है। सुबह घर आंगन को लिपकर साफ सफाई किया। स्नान पूर्व महुए की दातुन किया किया पश्चात पूजा सामानों की तैयारियां शुरू हुई। सेन के पास से दोना पत्तल लाया गया। धान को आग में सेंककर लाई बनाया। सात प्रकार के अन्न गेहूं, चना, ज्वार, बाजरा, मसुर एवं महुआ को सगरी में समर्पित किया। दोपहर बाद सामूहिक रूप से चौक चौराहे या धार्मिक स्थल में एकत्रित हुए। यहां पर जल कुंड के रूप में दो हल्का गहरे कुएं खोदे गए थे जिनके चारों ओर गोलाकार बेर, गूलर, पलाश, कुश की टहनियों को गढ़ाकर सुसज्जित किया गया था। इससे सगरी की आभा और अधिक बढ़ गयी थी। नए कपड़े पहन कर पूजा सामग्री सहित पात्र में पानी लेकर महिलाएं पूजा आराधना किया। पानी को सगरी में डाला और देखते ही देखते लबालब हो गया। नि:संतान महिलाएं पुत्र की कामना को लेकर जोड़ा नारियल छोड़ा। कथाकार के द्वारा व्रत की महिमा का वर्णन किया। कथा के अनुसार बताया गया कि एक ग्वालिन जिनके 5 पुत्र थे उनको घर में छोड़कर अकेली दूध बेचने के लिए नगर में निकल गई। गाय का दूध उन्होंने खूब बेचा और वापस आकर देखा तो उनके चारों पुत्र मरे पड़े हुए थे तभी उनको ख्याल आया कि आज कमरछठ है तथा इस दिन गाय का दूध वर्जित है पश्चाताप करने लगी। ग्वालिन तत्काल भैंस का दूध देने के लिए चली गई और गाय का दूध वापस लेकर भैंस का दूध थमाया इस तरह जब घर आकर देखा तो उनके पांचों पुत्र जीवित हो गया था। पूजा स्थल से आने के बाद पसहर चावल का प्रसाद सबसे पहले गाय, चिड़िया, चूहा, कुत्ता, बिल्ली को दिया, उसके बाद में स्वयं ग्रहण किया। इस दिन हल के उपयोग से पैदा हुई अनाज का सेवन नहीं करते। धर्म ग्रंथों के अनुसार इस दिन हलधर बलराम का जन्म हुआ था तथा राजा जनक की पुत्री सीता का जन्म हल के स्पर्श से हुआ था इसलिए आज भी परंपरा है कि हल चलाई हुई खेत में व्रती माताएं नहीं जाती। बड़ी आस्था के साथ इस व्रत का निर्वहन किया गया। इनका प्रसाद महिला पुरुष सभी ने ग्रहण किया।