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बच्चे सहित बड़े भी पूजा अर्चना कर कृतज्ञता अर्पित करते हैं

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“संतोष सोनकर की रिपोर्ट”

राजिम। अंचल में इन दिनों धान कटाई होते ही बढ़ोना पूजा कर किसान अन्नपूर्णा माता के प्रति कृतज्ञता अर्पित करते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है जिसे आज भी किसान पूरी ईमानदारी के साथ श्रद्धा भक्ति से ओतप्रोत होकर बच्चे बड़े सब मिलकर पूजा अर्चना करते हैं इसमें चावल से बनी हुई मुर्रा तथा नारियल प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है। उनके पश्चात जैसे ही घरों में आते हैं शाम होते ही मुर्रा और नारियल का प्रसाद मोहल्ले के प्रत्येक घरों में बांटा जाता है। इससे आस- पड़ोस के लोगों के साथ सहयोगात्मक संबंध बना रहता है।धान मिंजाई की पद्धति बदली पिछले दो दशक में धान मिंजाई की पद्धति तेजी से बदली है। पहले धान की कटाई होती थी उसके बाद बीड़ा बांधने का काम होता था। उन्हें सिर पर लादकर गाड़ी के पास पहुंचाया जाता था और बैलगाड़ी से बियारे लाने का काम होता। यहां लाकर उन्हें पिरामिड आकार में हुंडी अर्थात खरही बनाकर रखते थे। जब पूरे खेत के धान आ जाते थे तब मिंजाई का कार्य करते थे। इस कार्य में दो से ढाई महीने का समय लग जाता था तथा मजदूर एवं पैसे भी लगते थे उसके बाद ही धान को मंडी ले जाकर बेचा जाता था। परंतु अब मशीनी युग आ जाने से हर काम झट से हो पा रहा है। जिस कार्य को करने में 2 से 3 दिन का समय लगता था अब वह आधे घंटे में ही पूरी हो जाती है हार्वेस्टर मशीन सीधे खेतों में जाते हैं और कटाई मिंजाई दोनों एक साथ करते हैं तथा ट्रैक्टर से उन्हें घर भी ला दिया जाता है और इस तरह से काम मिनटों में हो जाते हैं।गांव बनाने की होती है प्रथापूरे गांव के किसानों की धान कार से होकर गांव में आ जाते हैं। तब गांव बनाने की प्रथा होता है। इसमें ग्राम देवता ठाकुर देव में ले जाकर बीड़ा चढ़ाया जाता है। पुजारी के द्वारा पूजा अर्चना किया जाता है पश्चात घर में ऊपज आ जाने की खुशी में प्रत्येक घर फरा और चीला रोटी बनाकर उपज की पूजा अर्चना की जाती है। किसान अपने प्रत्येक कार्य भक्ति भाव के साथ पूरी करते हैं।मिंजाई में होते थे बेलन का उपयोग मिंजाई में पहले बेलन का उपयोग होते थे। इसमें बैलों को सेट किया जाता था और बैल चलते थे बेलन खींचा जाता था इस तरह से 4 से 5 घंटे तक लगता था तब कहीं जाकर धान झर पाता था। पैरा हटाने के बाद उन्हें पंखे के सहारे से धान और पेरोसी को अलग किया जाता था। और इस तरह से ठोस धान किसानों को प्राप्त होता। अब यह पद्धति पूरी तरह से लुप्त होती जा रही है। कहीं-कहीं सुदूर अंचलों में यह दृश्य देखने को मिलता है।

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